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मुसीबत आती है तो भगवान और पुलिस ही याद आती है – सत्यपाल सिंह

नयी दिल्ली, 21 जुलाई : समाज में पुलिस को लेकर नकारात्मक दृष्टिकोण पर चिंता व्यक्त करते हुए मुंबई के पुलिस आयुक्त रह चुके पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद सत्यपाल सिंह ने कहा है कि समाज में पुलिस को लेकर जो दृष्टिकोण है, वो ठीक नहीं है। मुसीबत आती है तो भगवान और पुलिस याद आती है और मुसीबत जाते ही लोग भगवान को भूल जाते हैं और पुलिस को नजर अंदाज कर देते हैं।

यह बात डॉ. सत्यपाल सिंह ने यह बात “विभाजित समाज में पुलिस और न्याय”विषय पर आयोजित संगोष्ठी में कही, जिसमें श्री सिंह के अलावा वरिष्ठ पत्रकार मनीष छिब्बर, महाराष्ट्र की पहली महिला आईपीएस रही डॉ. मीरान बोरवकंर और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ शीतल शर्मा मौजूद थी। संगोष्ठी का आयोजन राजेन्द्र पुनेठा स्मृति न्यास और यूरोपियन यूनियन के ज़ा मौनिए कार्यक्रम ने मिलकर किया।

उन्होंने कहा कि पुलिस ही देश और लोकतंत्र की सुरक्षा का मुख्य औजार है। अगर जजों के पास पुलिस ना हो तो वे फैसले नहीं सुना सकते हैं। देश में कहीं भी त्योहार हो, मेला हो, या परीक्षा, यात्रा, जनसभा हो, पहली जरूरत पुलिस की होती है। लेकिन पुलिस में संख्या बल कम है, काम का बोझ अत्यधिक है और एक पुलिसकर्मी को औसतन 12 से 15 घंटे तक काम करना पड़ता है।

डॉ. सिंह ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार प्रति एक लाख आबादी पर पुलिस बल 222 की संख्या में होना चाहिए। भारत में यह 171 मान्य है लेकिन मौजूदा स्थिति में ये संख्या 137 ही है। उन्होंने हर बार पुलिस को दागदार साबित करने की प्रवृत्ति की भी कड़ी आलोचना की और कहा कि सरकार के अनेक विभाग पुलिस की तुलना में बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार में लिप्त हैं लेकिन समाज हो या अदालत, सबको पुलिस को लेकर पूर्वाग्रह रहता है और वे पुलिस को लेकर शिकायत समाधान का तंत्र बनाने की वकालत कर रहे हैं। उनके लिए पुलिस को बुरा भला कहना फैशन बन गया है।

डॉ. सिंह ने कहा कि पुलिस सुधार की बात बहुत समय से चली आ रही है लेकिन कहीं भी पुलिस स्थापना बोर्ड तक नहीं है। पुलिसकर्मियों और अधिकारियों के तबादले और तैनाती राजनीतिक नेताओं द्वारा की जाती है। पुलिस चूंकि राज्य का विषय है इसलिए राजनीति पुलिस सुधार होने नहीं देती। इसी कारण पुलिस सबसे ज्यादा विभाजन करती है। अलग अलग पार्टी, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजन होता है। राजनीतिक आका जैसा चाहते हैं, वैसा होता है।

उन्होंने कहा कि यदि पुलिस कर्मी अपनी नौकरी के वक्त ली गई शपथ का पालन करें और बिना किसी भेदभाव के कानून व्यवस्था कायम रखें तो बहुत फर्क पड़ेगा। उन्होंने कहा कि पुलिस कमजोर होगी तो आंतरिक सुरक्षा कमजोर होगी। अच्छी पुलिसिंग के लिए हमारे व्यवहार में परिवर्तन लाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सौभाग्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने पुलिस सुधारों के लिए इस साल 18500 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया है।

इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार मनीष छिब्बर ने कहा कि भारत में यह सामान्य रूप में लोग मानते हैं कि देश की पुलिस भ्रष्ट है। रोज़ाना पुलिसकर्मियों और अधिकारियों का सामना आलोचना से होता है। पुलिस से अपेक्षा बहुत ज्यादा है और आउटपुट बहुत कम है।

गोष्ठी की विषय वस्तु पर चर्चा करते हुए श्री छिब्बर ने कहा कि दरअसल ‘रूल ऑफ लॉ’ के गायब होने के कारण ही समाज में विभाजन या ध्रुवीकरण हो रहा है। ऐसा पहली बार दिखाई दे रहा है कि न्यायाधीशों की आलोचना इस स्तर पर पहुंच गई है कि लोग सवाल पूछने की जगह पत्थर फेंक रहे हैं। उन्होंने पुलिस व्यवस्था में अत्यधिक राजनीतिक दखलंदाजी का मुद्दा उठाया और कहा कि पंजाब में एक साल में 5 महानिदेशक आ गए। जबकि केंद्रीय प्रशासनिक पंचाट की व्यवस्था है कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और पुलिस महानिदेशक को दो साल से पहले नहीं बदलना चाहिए। उन्होंने कहा कि इसी प्रकार से विधायकों को थानेदारों और हवलदारों के तबादले और तैनाती से दूर रखने की जरूरत है।

श्री छिब्बर ने कहा कि एक और महत्वपूर्ण बात कैदियों को लेकर है कि भारत की जेलों में 70 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं और 30 फीसदी से कम सजायाफ्ता हैं। उन्होंने कहा कि सरकार को उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार एक जमानत नीति बनाने की जरूरत है। इससे भी पुलिस के भेदभाव पूर्ण व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकेगा।

पुणे की पुलिस आयुक्त रह चुकीं डॉ. मीरान बोरवंकर ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि पुलिस में मज़हबी विभाजन के उदाहरण मुंबई में पहली बार 1993-94 के दंगों के दौरान दिखाई दिए। ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया जिनके बारे में कोई कल्पना नहीं कर सकता। इसी तरह पुलिस में लैंगिक भेदभाव भी है। पुलिस में महिलाओं को टेलिफ़ोन आपरेटर, वायरलेस आपरेटर, कंप्यूटर आपरेटर या ऐसी ही साइडलाइन वाली तैनाती दी जाती है। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में उन्होंने पाया कि आदिवासी एवं दलित समाज की महिला पुलिसकर्मी मुख्य धारा की तैनाती पाना चाहती हैं।

डॉ. बोरवंकर ने कहा कि पुलिस प्रशिक्षण में शारीरिक पहलुओं पर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है जबकि संविधान एवं रूल ऑफ लाॅ यानी कानून का शासन की ट्रेनिंग की कमी है। उन्होंने कहा कि संवेदनशीलता की कमी के कारण पुलिसकर्मी अक्खड़, घमंडी और ज्यादा कठोर हो गये हैं। उन्होंने कहा कि स्वैच्छिक संगठनों, शिक्षाविदों, न्यायविदों को शामिल करके पुलिस को संवेदनशील बनाने का प्रभावी प्रशिक्षण देने की जरूरत है। उन्हें धर्म, जाति, लिंग और क्षेत्र के मामले में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। उन्होंने राजनेताओं और ऊंचे पदों पर नियुक्त अधिकारियों द्वारा पुलिसबल का प्रयोग अपने रसूख के प्रदर्शन के लिए किये जाने की आलोचना की और कहा कि यह पुलिस का दुरुपयोग है। हमें एक सतर्क, जागरूक, सहयोगी पुलिस की जरूरत है।

जवाहर लाल विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ. शीतल शर्मा ने कहा कि समाज में संघर्ष अपरिहार्य है और संघर्ष होगा तो पुलिस की भी जरूरत होती है। उन्होंने कहा कि पुलिस की स्थिति लोकतंत्र की सेहत का सूचकांक होता है। संघर्ष को नियंत्रित करने और शांति व्यवस्था बनाए रखने की भूमिका को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि खाकी में खड़े पुलिसकर्मी भारत के निर्माण में सहयोग कर रहे हैं। उन्होंने पुलिस की जरूरतों को पूरा करने पर बल देते हुए कहा कि जब पुलिस की जरूरतें पूरी नहीं होंगी तो पुलिस आपकी अपेक्षा कैसे पूरी कर सकती है।

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