चांद की रोशनी में हॉकी खेलकर ध्यान सिंह बने थे ध्यानचंद
झांसी, 28 अगस्त : दुनियाभर में हॉकी के जादूगर के नाम से मशहूर मेजर ध्यानचंद का मूल नाम ध्यान सिंह था, लेकिन हॉकी के प्रति उनके जुनून का नतीजा था कि वह रात के समय चांद की रोशनी में हॉकी का अभ्यास करते थे और उनकी इसी आदत के कारण उन्हें ‘ध्यानचंद’ नाम मिला।
‘भारत रत्न’ मेजर ध्यानचंद के पुत्र और अर्जुन पुरस्कार विजेता ओलंपियन अशोक ध्यानचंद ने रविवार को ‘यूनीवार्ता’ को बताया कि हॉकी के लिये उनके पिता की दीवानगी इस कदर थी कि दिन में समय न मिलने पर वह रात में भी ग्राउंड में चांद की रोशनी में ही हॉकी खेलने लग जाते थे। उनकी इस आदत के बाद आसपास के लोगों में यह बात मुहावरे के तौर पर कही जाने लगी कि ‘चांद की रोशनी में देखो ध्यान की हॉकी।’ कालांतर में चांद और ध्यान का मिश्रण कुछ इस तरह हुआ कि उनका नाम ही ध्यान सिंह से ध्यानचंद हो गया और इसके बाद देश और दुनिया में वह इसी नाम से विख्यात हो गये।
उन्होंने बताया कि मेजर ध्यानचंद की प्रारंभिक शिक्षा झांसी में ही हुई। उस समय वह झांसी में एबर्ट गंज में रहते थे। वह झांसी स्थित हीरोज ग्राउंड की पथरीली जमीन पर ही हॉकी की प्रैक्टिस करते थे। पहले इसे चांदमारी का मैदान कहा जाता था। उन्होंने इस मैदान की कठोर जमीन पर नंगे पैर ही हॉकी खेलकर खुद को एक मजबूत खिलाड़ी के रूप में तैयार किया।
यही वह मैदान था जिस पर उन्होंने हाॅकी से जुड़ी तकनीकि बारीकियां सीखीं। अशोक ध्यानचंद ने बताया कि उनके दादा ने खेल के प्रति बेटे की दीवानगी को देख कर उन्हें 16 साल की उम्र में ही सेना में भर्ती करा दिया। सेना में भर्ती होने के बाद ही उन्हें ‘मेजर’ का तमगा मिला। उन्होंने बताया कि कम लोगों को ही यह मालूम है कि ध्यान सिंह हॉकी खेलने के साथ कुश्ती भी बहुत अच्छी लड़ते थे। उन्हें हॉकी खेलने और कुश्ती लड़ने का जबरदस्त शौक था।
सेना में शामिल होने के बाद उन्हें दिन में हॉकी खेलने का मौका कम ही मिल पाता था। ऐसे में वह हॉकी पर रात को चांद की रोशनी में हाथ आजमाते थे। उन्होंने बताया कि वर्ष 1926 में उनका न्यूजीलैंड दौरा, पहला मौका था जब विदेश की धरती पर किसी भारतीय ने किसी विदेशी टीम के खिलाफ गोल दागा था। इस समय ध्यानचंद की मौजूदगी में भारतीय टीम ने ऐसा जबरदस्त प्रदर्शन किया कि 1920 में ओलंपिक से बाहर कर दिये गये हॉकी के खेल को 1928 के ओलंपिक में फिर से शामिल किया गया।
इसके बाद 1928 की ओलंपिक की टीम में उन्हें को शामिल गया। उस समय की हॉकी ‘हिट एंड रन’ पद्धति पर खेली जाती थी, लेकिन भारतीय हॉकी 1926 तक पूरी तरह से स्किलफुल हो चुकी थी और इस हॉकी के ध्यानचंद शानदार खिलाड़ी थे। ओलंपिक में ध्यानचंद के विदेशी धरती पर जानदार और शानदार खेल के लोग मुरीद हो गये। इस ओलंपिक में उनके जादुई प्रदर्शन के बलबूते ही उन्हें ‘हॉकी का जादूगर’ कहा जाने लगा।
उन्होंने बताया कि उस समय देश गुलाम था। इसके बावजूद देश की हॉकी टीम जब किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में हिस्सा लेती थी तो ‘भारतीय टीम’ के रूप में ही जाना जाता था। उसे ‘ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत की टीम’ या ऐसा ही कोई और नाम नहीं दिया गया था।
मेजर ध्यानचंद की जयंती 29 अगस्त को ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाये जाने की भारत सरकार की घोषणा का अशोक ध्यानचंद ने स्वागत करते हुए इसके लिये आभार भी प्रकट किया। उन्होंने कहा कि अच्छा यही है कि खेल दिवस का नाम किसी खिलाड़ी के नाम पर ही रखा जाना चाहिए। सरकार ने इस ओर ध्यान देकर देश भर के खिलाड़ियों को सम्मान दिया है।
उन्होंने कहा कि मौजूदा सरकारें खेलों को काफी प्रोत्साहन दे रही हैं। ऐसे में बच्चों के सामने अब खेल भी एक करियर के रूप में उभर कर आ रहा है। बच्चे और युवा इस प्रोत्साहन से लाभ लें, ताकि खेलों की दुनिया में भारत का सितारा बुलंदी पर चमके।