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इस दुर्गा पूजा में कोलकाता के कुमारतुली के कुम्हारों को अच्छे कारोबार की उम्मीद

कोलकाता, 29 अगस्त : कोरोना के कारण दो वर्षों के आर्थिक संकट के बाद कोलकाता में कुम्हारों की प्रसिद्ध कॉलोनी, कुमारतुली में आगामी दुर्गा पूजा उत्सव के लिए पहले से बहुत चहल-पहल है, मूर्ति निर्माताओं और कारीगरों को बढ़ती हुई श्रम लागत और कच्चे माल की कीमतों के बावजूद अच्छे कारोबार की उम्मीद है।

बंगाल और पूर्वी भारत के सबसे बड़े त्योहार दुर्गा पूजा की शुरुआत में एक माह से भी कम समय बचा है, ऐसे में उत्तरी कोलकाता के हब में उत्साह का माहौल है, क्योंकि कुम्हार देवी की मूर्तियों को आकार देने में लगे हुए हैं।

सामुदायिक रूप से और घरों में पूजा करने वाले लोगों के ऑर्डर के अनुसार दुर्गा की मूर्तियां विभिन्न आकारों और रंगों में तैयार हो रही हैं। राज्य में कोविड मामलों की दैनिक संख्या 25 से कम हो गई है जिसके कारण खुशी का माहौल और बढ़ गया है।

चाइना पाल, 1994 में बनी कुमारतुली की पहली महिला मूर्तिकार ने यूनीवार्ता से कहा, “ मुझे जो ऑर्डर प्राप्त हुआ है, उसमें से अधिकांश का मौलिक स्वरूप या तो तैयार हो चुका है या उन्नत अवस्था में है। कुछ मूर्तियों पर पेंट का पहला कोट भी लग चुका है। ”
अपने पिता ईश्वर हेमंत कुमार पाल की मृत्यु के बाद इस व्यवसाय को अपनाने वाली 40 वर्षीय चाइना पाल शहर में प्रमुख सामुदायिक पूजाओं के लिए मूर्तियां बनाती हैं, जैसे मिताली संघ, सुभाष संघ, हाइलैंड पार्क आदि। इसके अलावा, उनकी मूर्तियों की मांग श्रीनगर और भोपाल जैसे दूर-दराज स्थानों पर भी है। पाल ने कहा कि कोविड संक्रमण के कारण 2020 और 2021 हमारे लिए बहुत कठिन रहा लेकिन अब स्थिति अच्छी है, मुझे अच्छी संख्या में ऑर्डर प्राप्त हुए हैं, मैं और ज्यादा ऑर्डर ले सकती थी, लेकिन समय की कमी के कारण मना कर दिया।

एक अन्य प्रसिद्ध मूर्तिकार मिंटू पॉल भी इस वर्ष व्यापार के रुझान से प्रसन्न हैं। मिंटू ने यूनीवार्ता से कहा, “ स्थिति अच्छी है। आयोजक 10-11 फुट की बड़े आकार की मूतियों को पसंद कर रहे हैं। पिछले वर्ष कोविड और लॉकडाउन के कारण उनका बजट कम था, इसलिए हमने दाम भी कम रखा था और मूर्तियां भी छोटी थीं। ”

मोंटी पाल, जो अपनी फाइबरग्लास मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं और जिनका विदेशों में भी निर्यात होता है, ने महसूस किया कि अभी तक व्यवसाय की स्थिति कोरोना से पहली वाली नहीं बनी है। मोंटी ने यूनीवार्ता से कहा, “ लेकिन हां, बाजार अच्छा है। मुझे प्रायः 6-7 विदेशी ऑर्डर मिलते थे जबकि पिछले वर्ष मुझे सिर्फ तीन ऑर्डर मिले थे, लेकिन इस वर्ष न्यू जर्सी, बोस्टन, लंदन, बैंकॉक से पांच ऑर्डर प्राप्त हो चुके हैं। ”

एक मज़दूर बापी सरदार ने कहा, “ मिट्टी प्रायः नमी सोखती है और हमें दुबारा काम करना पड़ता है, जिससे समय और लागत दोनों बढ़ जाती है। ”

मानसून के अंत में आने वाला यह त्योहार अपनी भव्यता और रचनात्मकता के लिए प्रसिद्ध है लेकिन मिट्टी की मूर्तिकारों को एक चुनौती भी देता है। इस वर्ष मॉनसून में अभी कमी नहीं आई है, इसलिए स्थिति में भी कोई बदलाव नहीं है।

यहां तक कि गंगा माटी (गंगा नदी के किनारे की मिट्टी), जो अपनी चिकनाई के कारण मूर्ति निर्माण के लिए बहुत उपयुक्त माना जाता है, महंगी हो गई है। रस्सियों से लेकर नाखूनों तक, सब कुछ बहुत महंगा हो गया है। मौसम की अनिश्चितताओं से ज्यादा इन इनपुट के कारण लागत में वृद्धि होती है जो कारीगरों के लिए एक चिंता का कारण है।

मिंटू पाल ने कहा,“ मजदूरों की दिहाड़ी में भी बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले दो वर्षों में कोरोना और प्रतिबंधों के कारण जो मजदूर कम दिहाड़ी पर काम कर रहे थे, अब उनके पास बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं, इसलिए जो पहले 1000-1200 रुपये दैनिक मजदूरी पर काम करते थे, वे 1800-2000 रुपये ले रहे हैं। ”

हिंदू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, देवी दुर्गा अपने चार बच्चे- गणेश, कार्तिक, लक्ष्मी और सरस्वती-के साथ पृथ्वी पर पांच दिनों के लिए अपने माता-पिता से मिलने और बुराई से लड़ने आती हैं, जिसका उत्सव भारतीय महीने आश्विन में यानी सितंबर-अक्टूबर में मनाया जाता है।

देवी दुर्गा शेर पर सवार होकर और अपने 10 हाथों में हथियार लेकर, जो बल और नारी शक्ति का प्रतीक है, कैलाश पर्वत पर अपने पति भगवान शंकर के पास जाने से पहले राक्षस महिषासुर का वध करती हैं।

पूजा का अनुष्ठान ‘षष्ठी’ या छठे दिन से शुरू होता है और ‘दशमी’ या दसवें दिन समाप्त होता है।

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